ईद मिलादुननबी की हकीकत

ईद मिलादुननबी क्यों मनाई जाती है और इसकी हकीकत क्या है?

मिलाद से मुराद है पैदाइश का दिन और ईद मिलादुननबी का मतलब है नबी-ए-करीम ﷺ की पैदाइश के दिन ईद मानना.
ईद मिलादुननबी मनाने वालों का कहना है के 12 रबीउल अव्वल को मुहम्मद ﷺ की विलादत हुई थी और उनकी विलादत का दिन ख़ुशी का दिन है इसलिए हर साल इस दिन को बड़े जोशो-खरोश से मनाते हैं , नए कपड़े पहने जाते हैं, घरों में मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं, और एक जुलूस भी निकाला जाता है जिसमे माइक और लाउडस्पीकर पर नारे लगाते हुए, शोर शराबों के बीच ये खुशियां मनाते हैं.
ये कहाँ तक सही है और क़ुरान और हदीस में इसके बारे में क्या हुक्म है,

पैग़म्बर और औलिया के वसीले से दुआ मांगना

पैग़म्बर और औलिया के वसीले से दुआ मांगना कहाँ तक सही है.
कुछ लोग दुआ करते वक्त कभी औलिया के वसीले से कभी पैग़म्बरों के वसले से अल्लाह को राज़ी करने की कोशिश करते हैं और  दुआ मांगते हैं. ये कहाँ तक सही है और हदीस-ओ-क़ुरआन में इसके बारे में क्या ज़िक्र है, आइये देखते हैं:

क़ुरआन और हदीस से वसीला की दलील और उनकी हकीकत :

दलील
"ऐे ईमान वालों, अल्लाह से डरो और उसकी तरफ वसीला तलाश करो "
(सूरह अल-मैदा आयत 35)
इस आयत में अल्लाह फरमाता है के अल्लाह की तरफ वसीला तलाश करो,

क़ुरान और हदीस की रौशनी में वसीला की हकीकत

वसीला क्या है और दुआ के वक्त वसीला लेना कैसा है?
वसीला के मानी हैं अल्लाह से क़ुरबत तलाश करना.
वसीला के बारे में  हदीस में भी ज़िक्र आया है. कई हदीसों में ऐसा ज़िक्र मिलता है के वसीला से दुआ मांगी गयी और दुआ क़ुबूल भी हुई.

(पढ़ें - पैग़म्बर और औलिया के वसीले से दुआ मांगना)

अब सवाल ये उठता है के वसीला के तौर पे हम क्या कहें या किसको अपना वसीला बनायें. इस सवाल का जवाब देने के पहले आइये वसीला की किस्मों पे ग़ौर करते हैं.
वसीला की हदीसों और क़ुरआन की आयतों पे ग़ौर करने पर वसीले की दो किस्में समझ आती हैं:
1. सही/जायज़ वसीला
2. ग़लत/नाजायज़ वसीला

शव्वाल का महीना और शव्वाल के 6 रोज़े

शव्वाल इस्लामिक साल का दसवां महीना है और रमज़ान के बाद इस महीने की आमद होती है. इस महीने की कुछ खासियतों में से एक सबसे बड़ी खासियत ये है की शव्वाल की पहली तारिख को ही ईद मनाई जाती है. पहली शव्वाल को तुले-ए-आफताब के बाद थोड़ा ठहर कर ईद की नमाज़ पढ़ी जाती है.
इस तरह शव्वाल का महीने का आग़ाज़ खुशियों के साथ होता है.
शव्वाल के महीने की खास बातों में एक और खासियत है शव्वाल के 6 रोज़े.
रमज़ान के महीने का रोज़ा फ़र्ज़ है जो की हर मुसलमान को रखने हैं, शव्वाल का रोज़ा सुन्नत है .
अगर ईद के बाद शव्वाल के महीने में वो रोज़ेदार शव्वाल के 6 रोज़े भी रख ले तो फिर उसे पुरे साल रोज़ा रखने का अजर-ओ-सवाब मिलेगा.

मजारों पे चादर चढ़ाना और क़ब्र परस्ती की हकीकत

हमारे मआशरे में एक और शिर्क देखने को मिलती है जो एक खास तबके के अंदर कुछ ज़्यादा ही है और वो है ... मज़ार पे कसरत के साथ जाना, वहां रौशनी करना, वहां सजदे करना और फिर मजार वालों से मन्नतें मांगना, उनसे अपने हाजतें बयान करना और उनके सामने झोली फैला कर माँगना जैसा के वो ही अल्लाह हों,  फिर ,मन्नत पूरी हो जाने की सूरत में उनकी क़ब्र पे चादर चढ़ाना, वहाँ उन मज़ार वालों की तारीफ़ में कौवालियां पढ़ना वगैरह वैगरह..
ये कहाँ तक सही है और क़ुरआन और हदीस में इसका क्या हुक्म है ?