मुहर्रम

मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है. ये उन 4 महीनो में से एक है  जिन्हे अल्लाह तबारक व-तआला ने हुरमत वाला महीना बताया है.
हुरमत वाले तमाम चारों महीनो की फेहरिस्त इस तरह है:
1. ज़िल-कदा
2. ज़िल हिज्जा
3. मुहर्रम
4. रज्जब
इन महीनो में हर तरह के लड़ाई झगडे ज़ुल्म-ओ-ज़्यादतियाँ और फसादात की सख्ती से मनहियत है. ये एहतराम के महीने हैं.
मुहर्रम की फजीलतों में से एक सबसे बड़ी फ़ज़ीलत है इस महीने का रोज़ा.


इस महीने की 9 और 10 तारीख को या फिर 10 या 11 तारीख को रोज़ा रखते हैं . इसकी मशहूर हदीसें निचे दी गयी हैं:-

1.हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) से रिवायत है कि जब रसूलल्लह सल्लल्लहु अलैही वसल्लम मदिने में तशरीफ़ लाए तो यहुद को देखा कि आशुरे के दिन का रोजा रख्ते है. लोगो से उन्होंने  पूछा  कि क्यो रोजा रखते है तो उन लोगों ने कहा कि ये वो दिन है जब अल्लाह तआला ने मूसा (अलैह०)और बनी इसराइल को फ़िरऔन पर ग़लबा (जीत) दिया, इसलिए आज हम रोजेदर हैं उनकी ताज़ीम के लिए.. तो नबी-ए-करीम (स० अलैह०) ने फ़रमाया हम तुम से ज़्यदा दोस्त हैं और करीब हैं मूसा (अलैह०) के. फिर आप (स० अलैह०) ने सबको हुक्म दिया इस रोज़े का .
(सहीह मुस्लिम: जिल्द 3, किताब 6(रोज़े के मसाइल), हदीस नंबर 2656)

2.हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) से रिवायत है के जब मुहम्मद (स० अलैह०) ने 10वीं मुहर्रम का रोज़ा रखा और लोगों को हुक्म दिया तो लोगों ने कहा की या रसूलल्लाह (स० अलैह०)  ये दिन तो ऐसा है कि इसकी ताज़ीम यहूद-ओ-नसारा करते हैं,तो आप (स० अलैह०) ने फ़रमाया के जब अगला साल आएगा तो हम 9 का रोज़ा रखेंगे.आखिर अगला साल न आने पाया की मुहम्मद (स० अलैह०) की वफ़ात हो गयी. (इसलिए हम मुस्लमान ९ और १० दोनों का रोज़ा रखते हैं )
(सहीह मुस्लिम: जिल्द 3, किताब 6(रोज़े के मसाइल), हदीस नंबर 2666 )

3.अबु क़तादा-अल-अंसारी (रजि०) से रिवायत है के नबी-ए-करीम  सल्लल्लहु अलैही वसल्लम से आशूरा (10 मुहर्रम) के दिन के रोजे के बारे में  पूछा तो आप सल्लल्लहु अलैही वसल्लम ने फ़रमाया की ये गुज़रे हुए साल के गुनाहों का कफ़्फ़ारा है.
(सहीह मुस्लिम: जिल्द 3, किताब 6(रोज़े के मसाइल), हदीस नंबर 2747 )

इसलिए जब हम आशूरा का रोज़ा रखें तो यहूद-ओ-नशरा की मुशबेहत न करते हुए 10वीं मुहर्रम के साथ साथ 9वीं मुहर्रम का भी रोज़ा रखें.
इस तरह हदीसों से मुहर्रम के महीने में अगर कुछ साबित है तो वो है मुहर्रम का रोज़ा. बाकी जो भी चीज़ें हम देखते या सुनते हैं सरासर बिददत और शिर्क हैं जो हमे गुमराही की तरफ ले जाते हैं. न तो हदीसों से कही मातम करने का ज़िक्र मिलता है न ताजियादारी का और न ही ढोल नगाड़े बजने और जुलूसे निकलने का ज़िक्र है. ये सरासर गुमराही है.

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