तीन तलाक़ और हलाला

तीन तलाक़


इस्लामिक शरीयत के मुताबिक़ अगर शौहर अपनी बीवी से अलग होना चाहता है तो फिर उसे जिस इस्लामिक क़ानून के मुताबिक़ ये अमल करना है उसी अमल को तलाक़ कहते हैं.
शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ के वक्त भी कुछ ख़ास हिदायतों का ख्याल रखना ज़रूरी है , मसलन हैज़ के दौरान औरत को तलाक़ नहीं देनी चाहिए, नशे की हालत में तलाक़ नहीं है , गुस्से की हालत में भी तलाक़ नहीं है.

तलाक़ लफ्ज़ कहने को बहुत ही छोटा है मगर इस लफ्ज़ से न जाने कई मुसलमानों ने अपने घर को बर्बाद कर लिया. तलाक़ जैसे मसले की सही जानकारी का ना होना भी कभी कभी इनकी खाना बर्बादी की वजह बनती है.

शरीयत के मुताबिक़ अहसन तरीक़ा ये है की अगर तीन तलाक़ एक ही वक्त यानी एक ही मजलिस में बोलें तो उसे एक ही तलाक़ माना जायेगा , यानी तीन तलाक़ एक ही दफा नहीं दी जा सकती हैं बल्कि शरीयतन एक तलाक़ के बाद इद्दत पूरी होने का इंतज़ार करना होगा जो की आम तौर पे तीन हैज़ का वक्त या तीन महीना है .
आइये तफ्सील से देखते हैं क़ुरआन और हदीस की सही रौशनी में की सही तलाक़ क्या है .

नमाज़ का सही तरीक़ा

मुकम्मल नमाज़ का सहीह तरीक़ा अहादीस के मुताबिक़

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ


रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया “ नमाज़ उस तरह पढ़ो जिस तरह मुझे
 पढ़ते हुए देखते हो. ”
[बुख़ारी ह० 631]

क़याम का सुन्नत तरीक़ा

◾ पहले ख़ाना-ए- काबा की तरफ़ रुख़ करके खड़े होना
[इब्न माजा ह० 803 ]

◾ अगर बाजमात नमाज़ पढ़े तो दूसरों के कंधे से कंधा और टख़ने से टख़ना मिलाना.
[अबू दाऊद ह० 662]

◾ फिर तक्बीर कहना और रफ़अ़ यदैन करते वक़्त हाथों को कंधों तक उठाना
[बुख़ारी ह० 735, मुस्लिम ह० 861]

या कानों तक उठाना

मुहर्रम

मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है. ये उन 4 महीनो में से एक है  जिन्हे अल्लाह तबारक व-तआला ने हुरमत वाला महीना बताया है.
हुरमत वाले तमाम चारों महीनो की फेहरिस्त इस तरह है:
1. ज़िल-कदा
2. ज़िल हिज्जा
3. मुहर्रम
4. रज्जब
इन महीनो में हर तरह के लड़ाई झगडे ज़ुल्म-ओ-ज़्यादतियाँ और फसादात की सख्ती से मनहियत है. ये एहतराम के महीने हैं.
मुहर्रम की फजीलतों में से एक सबसे बड़ी फ़ज़ीलत है इस महीने का रोज़ा.

ज़ुल-हिज्जा की फ़ज़ीलत



ज़ुल-हिज्जा इस्लामिक साल का आखरी महीना है और ये हुरमत वाले महीनों में से है.
अल्लाह तबारक व-तआला ने चार महीनों को हुरमत वाला महीना बनाया है जो की
1. ज़ुल-क़ादा
2. ज़ुल-हिज्जा
3. मुहर्रम  और
4. रजब है.
(अबु दाऊद , हदीस 1947)

27 रजब, शबे मेराज और उसकी बिदअतें


मेराज के दौरान आप ﷺ को अल्लाह तआला ने अपनी बहुत बड़ी बड़ी निशानियाँ दिखाई और 5 फ़र्ज़ नमाज़ों का तोहफा मिला जिसे अल्लाह ने नेकी के ऐतबार से 50 नमाज़ों के बराबर रखा है. आपको मेराज में ही जन्नत और जहन्नम भी दिखाया गया और आपने जन्नत के बागात और नहरें देखी, नहर-ए-क़ौसर को भी देखा जिसे अल्लाह ने आपको अता किया है, फिर आप जहन्नम के दरोगा मालिक को देखते हैं और जहन्नम में अज़ाब में मुब्तिला बहुत से इंसानों को देखते हैं जो अपनी ग़लतियों की सजा पा रह हैं.

तफ्सील के लिए देखें : शबे मेराज की हकीकत (इसरा और मेराज का बयान)

मेराज के इस वाक़ये को ले कर हमारे समाज में कुछ बिदअतें फैली हुई हैं और कुछ मुल्लाओं ने लोगों के दिलों में बहुत सी अफवाहें भी भर रखी हैं जिनका ज़िक्र यह किया जायेगा.

सबसे पहले हम इसकी तारिख पर ग़ौर करेंगे.


शबे मेराज की हकीकत (इसरा और मेराज का बयान)

मेराज का वाकिया इस्लामिक तारिख में एक अहम् तरीन वाकिया है जिसमे मुहम्मदुर रसूलल्लाह ﷺ को अल्लाह तआला ने अपनी बड़ी बड़ी निशानियों को दिखाया, उनसे अम्बिया की मुलाकात कराई, उन्हें आसमानो की सैर करवाई गयी, उन्हें जन्नत और दोज़ख को दिखाया गया और सबसे बड़ी बात के उन्हें अल्लाह की तरफ से एक अज़ीम तोहफा दिया गया जो के उनकी पूरी उम्मत के लिए था, और वो तोहफा था पांच नमाज़.
आइये मेराज के बारे में थोड़ी तफ्सील से जानें:

मेराज दरअसल एक सफर नहीं बल्कि दो सफर का पूरा वाकिया है जिसे अगर इसरा और मेराज का सफर कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा, क्योंके एक सफर में आप ﷺ मस्जिद-हराम (खान-ए-काबा) से मस्जिदे अक़्सा (बैतूल मक़दिस) को गए और फिर दूसरा सफर आसमानों का किया जहाँ आप सातों आसमान पे गए और सिदरतुल मुंतहा पे भी आपको ले जाया गया और फिर आपको जन्नत और जहन्नुम की भी  सैर कराई गयी.

नबी और रसूल में फ़र्क़



नबी और रसूल में शरई ऐतबार से देखें तो ख़ासा फ़र्क़ है.
रसूल का मर्तबा नबी से बड़ा होता है. हर रसूल अव्वलन नबी होता है और फिर रसूल के मर्तबे को पाता है मगर हर नबी रसूल नहीं हो सकता. यही वजह है के दुनिया में एक लाख चौबीस हज़ार से भी ज़्यादा नबी आये मगर रसूल सिर्फ तीन सौ तेरह हुए.