तावीज़ और गंडे की हकीकत

तावीज़ क्या है ?
किसी बीमारी से बचने के लिए या कुछ खास हासिल करने की ग़रज़ से गले या बदन के किसी हिस्से में लटकाए जाने वाली शय को ही तावीज़ कहते हैं.इसको तमीमा भी कहते हैं. तावीज़ लटकाने वालों का अक़ीदा ये होता है के उस से उनकी सारी बलाएँ दूर हो जाती हैं, बदन को ताकत नसीब होती हैं और जिस मकसद के तहत उनको पहना जाता है वो मक़सद पूरा होता है. इन बातों में कहा तक सच्चाई है और तावीज़ बांधना कहा तक शरई ऐतबार से जायज़ है?

आप कह दो के मेरे लिए अल्लाह ही काफी है और भरोसा करने वाले उसी (अल्लाह) पे भरोसा करते हैं.
(सौराह जुमर, आयत नंबर 38)

शबे क़दर की फ़ज़ीलत


रमज़ान की फ़ज़ीलत और रोज़े की अहमियत का जब भी ज़िक्र आता है तो इसके साथ लैलतुल क़दर का भी ज़िकर होता है.
शबे क़दर या लैलत-उल-कद्र रमज़ान की उन पांच ताक रातों में एक रात को कहा जाता है जिनके बारे में बहुत सी क़ुरआनी आयतें और हदीस हैं के इस रात की इबादत हज़ार महीने की इबादत से बेहतर है. ये वही रात है जिसमे अल्लाह तआला ने क़ुरआन को नाज़िल फ़रमाया.
जब हम शबे क़दर को पाएं तो हमे खूब इबादत और क़याम करनी चाइये क्यूंकि जैसा के बताया गया है के हज़ार महीने से बेहतर है तो ज़रा सोचिये के उस रात की इबादत कितनी अफ़ज़ल और मक़बूल होगी और वो शख्श सच में बदनसीब होगा जो इस रात को ईबादत न करे.

शबे क़दर के बारे में कुछ क़ुरआनी सूरतें और आयतें :



बेशक हमने इसे (क़ुरआन को ) शबे क़दर में नाज़िल किया. क्या तुम्हे मालूम है की शबे क़दर क्या है?
शबे क़दर हज़ार महीने से बेहतर है.इसमें फ़रिश्ते और रुहुल क़ुद्दूस उतरते हैं अपने परवरदिगार के हुक्म से हर काम के लिए .ये (रात) तुलु-ए-सुबह तक सलामती है.
(क़ुरआन 97,सुरह क़दर)


हामीम, कसम है किताबुं मुबीन की. बेशक हमने इसको एक मुबारक रात में नाज़िल फ़रमाया, बेशक हम खबरदार करने वाले हैं. इसी में सारे हिकमत वाले काम का फैसला किया जाता है.
(क़ुरआन 44, सुरह दुखान आयत 1-5)

जैसा की क़ुरआन की सूरतों से इस रात की फ़ज़ीलत का पता चलता है  के ये बहुत ही बा-बरकत रात है जो हज़ार महीने से बेहतर है, और अल्लाह तबारक व तआला ने इसी लैलत-उल-क़दर में क़ुरआन नाज़िल किया.
अब शबे क़दर के बारे में हदीस पे गौर करें:

हज़रते आयशा रजि० से रिवायत है के हुज़ूरे पाक सल० अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया "शबे क़दर को आखिरी दस रमजान के ताक रातों (21,23,25,27,29)  में ढूंढो "
(सही बुखारी फ़ज़ाइल लैलतुल क़दर, हदीस 2017 )

उयैना बिन अब्दुर-रहमान ने कहा के मेरे वालिद ने मुझसे कहा था के शबे क़दर का तज़किरा अबु बकर की मौजूदगी में किया गया था.इसलिए उन्होंने कहा "मैं इसे (लैलतुल क़दर ) को सिर्फ रमज़ान के आखरी दस रातों में से तलाश करता हूँ जैसा की मैंने अल्लाह के रसूल से सुना था"
हक़ीक़तन मैंने उन्हें कहते सुना "इसे तलाश करो जब नौ बाकी रहे, या जब सात बाकी रहे या जब पांच या फिर आखरी के तीन रातों के दौरान ढूंढो"
(जामे अल-तिर्मिज़ी कितउल सौम हदीस 794)

क़ुरआन और हदीस के हवाले से जो हमारे सामने है वो ये की हमे शबे क़दर को 21,23,25,27,29 रमज़ान की रातों में तलाश करनी चाहिए क्यूंकि ये रमज़ान की ताक रातें हैं जिनका ज़िक्र मुहम्मदुररसूलल्लाह  स० अलैह० ने किया है और जिन्हे सहाबा मानते आये हैं, हमे भी इन्ही ताक रातों में लैलतुल क़दर को ढूंढना है.

कुछ मौलवी मुल्ला ये भी मानते हैं के शबे क़दर सिर्फ 27 रमज़ान की रात को है ,हालाँकि इसका कही कोई सुबूत नहीं मिलता के शबे क़दर २७ रमजान को ही है. अगर ऐसा होता तो फिर अल्लाह के रसूल हमे ताक रातों में ढूंढने के लिए क्यों कहते, जबकि हदीस से साफ़ ज़ाहिर है के शबे क़दर को ताक रातों में ढूंढा जाए.
सोचने वाली बात है के जिस रात का पता हमारे प्यारे रसूल सल० अलैहि० ने नहीं बताया सहाबा-ए-कराम ने नहीं बताया, तबो-ताबइन ने नहीं बताया, बल्कि उन्होंने बस आखरी अशरे की ताक रातों में ढूंढने की इत्तेला दी
मगर आज के कुछ मुल्लाओं ने फ़ौरन से बता दिया के 27 की शब (रात) ही शबे क़दर है इसलिए हमे इस बात का खास ख्याल रखने चाहिए के सिर्फ एक रात को जग कर ईबादत करें और फिर ये सोचे के बस यही शबे क़दर था तो फिर ये गलत है बल्कि हमे तमाम ताक रातों को जगना चाहिए और खुूब ईबादत करनी चाहिए

अल्लाह हम सबको राहे हक़ पे चलने की तौफ़ीक़ आता फरमाए. (आमीन)

सेहरी के मसाइल

आज हम सेहरी के मुताल्लिक़ जानेंगे के

सेहरी कब करनी चाहिए

सेहरी में क्या खाना चाहिए 

और सेहरी न कर पाएं तो रोज़ा होगा या नहीं.

सेहरी लफ्ज़ सेहर से बन है जिसका मतलब तीसरे पहर से है यानि फज़र के ठीक पहले का वक्त. इसलिए हमे इस बात का ख्याल रखनी चाहिए के सहरी का वक्त भी फज़र के ठीक पहले तक है और अफ़ज़ल वक्त भी फज़र के कुछ देर पहले का है के हम सहरी करें और कोशिश करें के फज़र के काफी पहले पहले सेहरी ख़त्म कर लें.
सेहरी में हमे कोशिश करनी चाहिए के हम ज़्यादा हैवी और तीखी चीज़ें न लें क्यूंकि एक तो खाना पूरी तरह से हज़म नहीं होता क्यूंकि हमारे मेंदे को ऐसे वक्त में ऐसे खाने की आदत नहीं होती जिसकी वजह से खट्टी डकारें आती हैं जो एक रोज़ेदार के लिए कतई अच्छा नहीं है. इसलिए हमे कोशिश करनी चाहिए के फ्रूट सलाद , सब केले और दीगर फल ले सकते हैं . कोशिश करें की सेहरी के बाद चाय या कॉफ़ी न पिएं क्यूंकि ये प्यास लगने में अहम किरदार अदा करते हैं.
एक खास बात जो यह डिस्कस करेंगे वो ये की क्या सेहरी करना बहुत ज़रूरी है और अगर सेहरी न कर पाएं और वक्त नोकल गया तो क्या हमारा रोज़ा होगा?
सबसे पहली बात के सेहरी करना सुन्नत है सिर्फ रोज़ा रखना फ़र्ज़ है. इसलिए हमे पूरी कोशिश करनी चाहिए के हम इस सुन्नत को छोड़ें नहीं क्यूंकि सेहरी की अपनी फ़ज़ीलत है और सेहरी में बरकत है. मगर अगर किसी वजह से सेहरी न कर पाएं या भूल गए और नींद से नहीं उठ पाये तो फिर कोई बात नहीं आपका रोज़ा हो जायेगा बगैर सेहरी किये भी....क्यूंकि रोज़ा के लिए सेहरी शर्त नहीं बल्कि ये एक सुन्नत है और अगर गलती से छूट गयी तो भी हमारा रोज़ा हो जायेगा. तो याद रखें के सेहरी हम करें या न करें हमारा रोज़ा हर हाल में पूरा होना है मगर फिर भी हमे कोशिश करनी चाहिए के हम मुहम्मदुर रसूलुल्लाह की सुन्नत भी अदा कर सकें.
अल्लाह हम सभी को क़ुरआन-ओ-सुन्नत पे चलने की तौफ़ीक़ आता फरमाएं (आमीन)

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रोज़े की नियत


नियत के बार में एक बात हम सभी जानते हैं के नियत दिल के इरादे का नाम है. अक्सर ही हम जब कोई काम करते हों तो हमारे दिल में इरादे होते हैं के हम आज ये करेंगे या हमे यहाँ जाना है वगैरह-वगैरह.
ठीक उसी तरह से जब हमे रोज़ा रखना होता है तो उसके लिए भी नियत करते हैं और नियत करनी ज़रूरी है क्यूंकि ये हदीस से भी साबित है के जब हम रोज़ा रखें तो नियत करें.
रोज़े का वक्त सुबह सादिक़ से शुरू होता है इसलिए ये ज़रूरी है के रोज़े की नियत सुबह सादिक़ से पहले करे.
अब ज़रा हम कुछ हदीसों पे गौर करें :

1. "अमल का दारोमदार नियत पर है और हर शख्स के लिए वही है जो वो नियत करता है."
(सहीह बुखारी Volume 7, Book 62, Number 8)

2. "जो शख्स तुलु--इ- आफताब से पहले नियत न करे,उसका रोज़ा नहीं."
(सुनन-अल निसाई  Vol. 3, Book 22, Hadith 2334)

3. जो भी रात से रोज़े की नियत नहीं करता,उसका रोज़ा नहीं है."
(सुनन-अल निसाई  Vol. 3, Book 22, Hadith 2336)

ऊपर की तमाम हदीसों से हमे यही पता चलता है के रोज़े की नियत बेहद ज़रूरी है और वो भी वक्त पे.
अब बात आती है के नियत कैसे करें.
नियत करने के लिए क्या हमे किसी अल्फाज़ को अदा करने की ज़रूरत है?
क्या नियत के लिए वाकई कोई दुआ है ?
.
सबसे पहले तो जैसा के हम सभी जानते हैं के नियत दिल के इरादे का नाम है तो उसके लिए हमे अपनी जुबां से अलफ़ाज़ अदा करने की ज़रूरत नहीं है, क्यूंकि न तो किसी भी तरह के नियत को अल्फाज़ में बयां करने वाली कोई हदीस या क़ुरआनी आयत नहीं है. ठीक उसी तरह रोज़े की नियत करने वाली कोई दुआ हकीकतन किसी हदीस में मौजूद नहीं है जैसा के ज़्यादातर मुस्लमान रोज़े की नियत के लिए ये अलफ़ाज़ कहते हैं :


"बेसौमी गदन नवैतु मीन शहरे रमज़ान"

तर्जुमा : मैं रमजान के कल के रोज़े की नियत करता हूँ.
नोट: अरबी में गदन के माने कल (आने वाला) होता है


अब यहां पे कुछ बातें गौर करने वाली हैं
1.  सबसे पहली बात के ऐसी कोई नियत की दुआ या अलफ़ाज़ हदीस या क़ुरआन से साबित नहीं है.
2. दूसरी बात जो खास कर हमे समझनी है वो ये के इस्लामिक कैलेंडर में दीनी ऐतबार से मग़रिब के बाद से तारीख बदल जाती है . तो इस तरह से शाम मग़रिब से फिर पूरी रात और पूरा दिन तक "आज" ही कहेंगे न के कल . तो जैसा के हम फजर के पहले सेहरी करते हैं और फिर ये कहते हैं के कल के रोज़े की नियत कर रहे हैं तो फिर क्या ये सही है, अगर ये मान भी लें के नियत करनी है तो फिर हमारी नियत कहा हुई क्यूंकि हम तो दुसरे दिन के रोज़े की नियत कर रहे हैं. अगर कुछ होशियार लोग ये दलील दें के दुनयावी कैलेंडर की बात हो रही है तो भी गलत है क्यूंकि सेहरी अक्सर 12 बजे के बाद की जाती है फिर नियत की जाती है और दुनियावी ऐतबार से भी वो रोज़ा उसी दिन का होता है न के आने वाले कल का.
.
इसलिए हम सभी को चाहिए के ज़ुबान से नियत करने वाली बिदअत से बचें और दूसरों को भी इसके मुतल्लिक बताएं और उन्हें बिदअत करने से रोकें.

अल्लाह तबारक व तआला हम सबको राहे-रास्त पे चलाये और हम सबको क़ुरान-ओ-सुन्नत पे अमल करने की तौफीक अता फरमाए  (आमीन)


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फ़र्ज़ नमाज़ के बाद के अज़कार (दुआएं)



1. नमाज़ में आखिरन सलाम फेरने के बाद  बुलंद आवाज़ में "अल्लाहु अकबर" (अल्लाह सबसे बड़ा है)
कहनी चाहिए

(सही मुस्लिम, किताबुल मसजिद 583)

2. फिर तीन दफा असतगफ़िरुल्लाह (मैं बख्शीश मांगता हूँ अल्लाह से) कहनी है
फिर उसके बाद "अल्लाहुम्मा अंतस्सलामु मिंकससलामु तबरक्ता ज़लजलाली वलइकराम" (या अल्लाह तू ही सलामती वाला है और तेरी ही तरफ से सलामती है, तू बहुत ही बा-बरकत है ऐे बुज़ुर्गी और इज़्ज़त वाले) पढ़नी चाहिए.

(सही मुस्लिम, किताबुल मसजिद 591)

नोट: इसी दुआ में अक्सर लोग "व-इलैका यरजेउससलामु  हईएना रब्बना बिस्सलामु व-अदखिलना दारससलामु" का इज़ाफ़ा कर के पढ़ते है जो की सही नहीं है क्यूंकि हदीस में ये इज़ाफ़ा कही भी रसूलल्लाह (ﷺ) से साबित नहीं है.

3.  "अल्लाहुम्मा अ-इन्नी अला जिक्रिका व शुक्रिका व हुस्नी इबादतिका " (ऐे  अल्लाह, मेरी मदद फरमा ताकि मैं तेरा ज़िक्र, तेरा शुक्र और तेरी इबादत कर सकूँ )
(अबु दाऊद किताबुल वितर 1522)

4. "ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरिकलहु लहूल मुल्क व लहूल हम्द व हुआ अला कुल्ले शैइन क़दीर अल्लाहुम्मा ला मानीआ लिमा अअतैता वला मुअ तिअ लिमा मनअतअ वला यनफउ ज़लजद्दी मिंकल जद्दो"
(नहीं है कोई माबूद सिवा अल्लाह के, वह अकेला है कोई उसका शरीक नहीं, उसके लिए बादशाही है और उसी के लिए सभी तारीफें हैं और वह हर चीज़ पे क़ादिर है. ऐ अल्लाह जो चीज़ तू दे कोई नहीं रोक सकता, और जिस चीज़ से तू रोक ले उसे फिर कोई नहीं दे सकता, और साहबे हैसियत को उसकी दौलत नहीं बचा सकती तेरे अज़ाब से)

(अबु दाऊद किताबुल वितर 1505)

5. "ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरिकलहु लहूल मुल्क व लहूल हम्द व हुआ अला कुल्ले शैइन क़दीर ला हउला वला कुवता इल्ला बिल्लाही ला इलाहो वला नअबुदू  इल्ला अईयाह लहूंनेअमतो व लहुलफजलो व लहससनाउल हसनो ला इलाहा इल्लल्लाहु मुखलिसीनअ लहुद्दीनअ वलौ करेहल काफिरून"
(नहीं है कोई माबूद सिवा अल्लाह के, वह अकेला है कोई उसका शरीक नहीं, उसके लिए बादशाही है और उसी के लिए सभी तारीफें हैं और वह हर चीज़ पे क़ादिर है. नहीं है गुनाह से बचने की हिम्मत और नेकी करने की क़ूवत मगर अल्लाह की तौफ़ीक़ से, अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और हम उसके सिवा किसी और की इबादत नहीं करते ,उसका हम पर एहसान है और उसीका फज़ल है और  वही हर तारीफ का हक़दार है ,अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और हम सिर्फ उसी की बंदगी करते हैं भले ही काफिर बुरा समझे )

(अबु दाऊद किताबुल वितर 1506)

6. सुब्हान अल्लाह 33
   अल्हम्दुलिल्लाह 33
   अल्लाहु अकबर 34  दफा

या फिर

सुब्हान अल्लाह 33
अल्हम्दुलिल्लाह 33
अल्लाहु अकबर 33 और फिर  एक दफा "ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरिकलहु लहूल मुल्क व लहूल हम्द व हुआ अला कुल्ले शैइन क़दीर"

(सही मुस्लिम, किताबुल मसाजिद 597)


7. अल-मुअव्वीज़ात यानि क़ुरआन की आखिरी २ सूरतें
"क़ुल औजुबिरबिलफ़लक़......." और "क़ुल औजुबिरब्बिननास........ "

(अबु दाऊद किताबुल सलात 1523, सुनन अल-निसाई 1336)

8. आयतुल कुर्सी  "अल्लाहु ला इलाहा इल्लाहु वलहैयुल क़य्यूम............ " 
(सुरह बकरा आयत 255)



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नियाज़ फातिहा की हक़ीकत

हमारे मआशरे में एक चीज़ जो खास तौर पे बहुत से मुसलमानों के घरों में देखी जा सकती है, वो है नियाज़ करवाना या फातिहा दिलाना जिसमे खाने-पीने की चीज़ों को सामने रखते हैं और सुरह फातिहा और दीगर क़ुरआनी सूरतें और आयतें पढ़ी जाती हैं और फिर आखिरी में पीर-ओ-पैगम्बरों की नज़र की जाती है.

क्या ये नज़र-ओ-नियाज़, ये फातिहा दिलाना सही है??

सबसे पहले हम क़ुरआन और हदीस पे गौर करते हैं :

अल्लाह तआला क़ुरआन में फरमाता है  "हमने तुम्हारे लिए दीन को मुकम्मल कर दिया"
(सुरह माएदा, आयत नंबर 3)

Surah maaida aayat 3

"तुम पे हराम किया गया मुरदार और खून और खिंजीर का गोश्त, और जिस पे अल्लाह के सिवा किसी और का नाम पुकारा गया हो."
(सुरह बकरा आयत 173, सुरह माएदा 3, सुरह अनाम 145 सुरह नहल 115)

हज़रते आयशा रजि० से रिवायत है के मुहम्मद स० अलैह० फरमाते हैं के जिसने हमारे दीन में कुछ ऐसी बात शामिल की जो उसमे से नहीं है तो वो मरदूद है.
(सहीह बुखारी 2697, सहीह मुस्लिम 1718)

एक हदीस है के मुहम्मद स० अलैह० फरमाते हैं "" दीन के अंदर नयी नयी चीज़ें दाखिल करने से बाज़ रहो, बिला शुबहा हर नयी चीज़ बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है."
(अबु'दाऊद किताब अल सुंनह 7064)

रसूलल्लाह स० अलैह० ने फ़रमाया "सबसे बेहतरीन अमर (अमल करने वाली) अल्लाह की किताब है और सबसे बेहतर तरीका मुहम्मद स० अलैह० का तरीका है, और सबसे बदतरीन काम दीं में नयी नयी बातें पैदा करना है, और हर नयी बात गुमराही है "
(इबने माजा जिल्द 1 हदीस 45)
.
इसके अलावा भी दलील के लिए न जाने कितनीही क़ुरआनी आयतें और हदीसें मौजूद हैं जो इस बात की दलील देती हैं के दीन में कोई नयी चीज़ ईजाद न करो और खाने पीने की चीज़ों पे सिर्फ अल्लाह का नाम लो ताकि वो तुम्हारे लिए हलाल हो जाये.

अब ज़रा ग़ौर फरमाते हैं नियाज़ फातिहा के तरीके और उस से जुडी बातों से.
नियाज़ फातिहा के ग़लत होने की दलील:-
1.
आपने देखा होगा के नियाज़ फातिहा जब भी होती है तो किसी पीर या बुज़ुर्ग या किस औलिया-ओ- पैगम्बर के नाम की होती है, मतलब उनका नाम लिया जाता है बेशक उनके नाम लेने के पहले क़ुरआनी सूरतें और आयतें पढ़ी जाती है मगर जब भी किसी और का नाम आ जाये तो फिर वो खाने की चीज़ हराम हो जाती है. इसलिए नियाज़ फातिहा दिलाना सरासर ग़लत है और गुनाह है.
2.
अगर कुछ लोग इस बात पे बहस करें के अगर हमने सिर्फ क़ुरआनी आयतें पढ़ी तो फिर तो वो हलाल हुआ क्यूंकि क़ुरआन अल्लाह का कलाम है...तो ऐसे समझदार लोगों से मैं पूछना चाहता हूँ के क्या किसी हदीस या क़ुरआन से इन्हे ऐसा करने की दलील मिलती है के कभी मुहम्मद रसूलल्लाह स० अलैह० ने या उनके सहबाओं ने ऐसा किया हो के खाने पीने के सामन सामने रख कर क़ुरआन की तिलावत की हो और फिर खाया हो??
नहीं ऐसी कोई दलील किसी सही हदीस में नहीं है. मतलब साफ़ हुआ के लोगों ने अपनी तरफ से  दीन में इस नयी चीज़ का ईजाद किया है, फिर तो ये बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है.
3.
कुछ जाहिल लोग ये दलील देते हैं के खाने पे क़ुरआन की तिलावत करने से खाना हराम होता है तो फिर बिस्मिल्लाह कहने से भी कहना हराम हो गया. सबसे पहली बात के क़ुरआन की आयतें तिलावत करने से खाना हराम नहीं होता बल्कि तुम्हारा ये फेल (खाने पे तिलावत करना) बिदअत है क्यूंकि न तो मुहम्मद स० अलैह० ने कभी खाने को सामने रख कर तिलावत की और न ही उनके सहाबियों से कभी सुबूत मिला, हाँ खाने से पहले बिस्मिल्लाह के तमाम सुबूत मौजूद हैं.
4.
कुछ मौलवी जिन्होंने दीन को अपना कारोबार बन लिया है वो  मेरे उन भाइयों को, जिन्हे दीन की समझ कम है ये दलील देते हैं के खाने की चीज़ पे तो हमने क़ुरआन पढ़ी और ये तो और भी अच्छी बात है फिर भी ये लोग ऐतराज़ करते हैं..... मैं अपने उन भाइयों को बताना चाहता हूँ के जैसे नमाज़ की एक रकत में सिर्फ दो ही सजदे हैं और अगर तीसरा सजदा किया तो ये गुनाह होगा बेशक सजदे के दौरान हम अल्लाह की तारीफें करें, मगर ये काम गुनाह हो गया क्यूंकि ये बिदअत है मतलब दीन-इ-इस्लाम में नयी चीज़ जोड़ी हमने इसलिए ये गुनाह है. उसी तरह से खाने की चीज़ें सामने रख कर क़ुरआन पढ़ें तो ये भी बिदअत हो जाती है क्यूंकि ये किसी हदीस से या क़ुरआन से साबित नहीं है.


सबसे आखरी बात ,वो ये के क्या दीन का कारोबार चलने वाले हमारे मौलवियों को लगता है  की हमारा दीन मुकम्मल नहीं हुआ,जो वो इसमें नयी चीज़ें जोड़े जा रहे हैं ...जबकि अल्लाह फरमाता है के हमने तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया.
मतलब ये अल्लाह के कलाम को ताक पे रख कर (नउजुबिल्लाह) अपनी मनमानी करते रह रहे हैं और जिन्हे दीन की सही समझ नहीं है उन्हें भी बहका रहे हैं और न जाने कहाँ कहाँ से झूटी दलीलें दे रहे हैं  जबकि हमें तो बस वही काम करनी चाहिए जिसका हुक्म अल्लाह और उसके रसूल ने दिया हो या मुहम्मदुर रसूलल्लाह से साबित हो और सहाबाओं ने किया हो.


ऊपर की तमाम बातों से ये साबित हुआ के नियाज़ फातिहा दीन में नयी ईजाद करदा अमल हैं जो की बिदअत है और हमे इस गुमराही से बचना चाहिए. बजाये सवाब के हम गुनाह की तरफ जा रहे हैं.


अल्लाह तआला से दुआ है के हम तमाम मुसलमान भाइयों को सही दीन पे अमल करने की तौफ़ीक़ अत फरमाए और जो दीन के रास्ते से भटक गए हैं उन्हें रहे रास्त पे ला दें (आमीन)

फ़ितरा क्या है और कब देनी चाहिए

फ़ितरा दरअसल वो खाने पिने की चीज़ है जिसे हम रमजान के आखिर में ईद का चाँद देख कर मिस्कीनों ग़रीबों में तक्सीम कर देते हैं. ये हमारे रोज़े की खामियों,कमज़ोरियों को पुरे करने वाला एक अमल है और हर मुसलमान को चाहिए के वो  ईद-उल-फितर का चाँद देख कर फ़ितरा ज़रूर अदा करे.
फ़ितरा अदा करने का असल मक़सद है के ईद के रोज़ कोई भूका न रहे और कोई भीक न मांगे इसलिए ईद की नमाज़ अदा करने के पहले हमे फ़ित्र अदा कर देनी चाहिए.
रसूलल्लाह सल० अलैह० ने कहा के जिसने ईद की नमाज़ के बाद फ़ितरा अदा किया तो फिर वो फ़ितरा नहीं सदक़ा हुआ.
इसलिए फ़ितरा अदा करने का बेहतरीन वक्त ईद-उल- फितर का चाँद देखने के बाद और नमाज़ अदा करने से पहले का है और ये सुन्नत भी है.
बहुत से लोग रमजान शुरू होते ही फ़ितरा तक़सीम करना शुरू कर देते हैं हालांकि ये सही अमल नहीं है. अब चूँकि आबादी ज़्यादा है और फ़ितरा इतनी जल्दी,इतने काम वक्त में ज़रूरतमंदों को अदा नहीं किया जा सकता कि वो उन खाने पीने वाली चीज़ो को (मसलन खजूर,जौ, मुनक्का, चावल वगैरह) वक्त रहते इस्तेमाल कर सकें इसलिए बेहतर ये होगा के ये फ़ितरा हम 28 या 29 रमज़ान से तक़सीम करें जैसा के अब्दुल्लाह इबने उमर रज़ि० का मामूल था के वो 2-3 दिन पहले फ़ितरा तक़सीम करते थे.

एक और बात ग़ौर करने वाली है के हुज़ूर-ए-पाक सल० अलैह० से से साबित है के फ़ितरा खाने की शक्ल में दी जाने वाली चीज़ें होनी चाहिए न के रूपये-पैसे की शक्ल में, क्यूंकि जैसा के पहले बताया जा चूका है के फितरे का असल मक़सद यही है के ईद के रोज़ जब सभी खुशियां मनाएं और पेट भर के खाएं तो उस दिन कोई भीक न मांगे,कोई भूका न रहे.
फ़ितरे को पैसे की शक्ल में बहुत बहुत मजबूरी की सूरत में अदा करें जैसे के आप किसी ऐसी जगह पे हैं जहां कोई ऐसा ग़रीब नहीं जिसे खाने पीने की तकलीफ हो,तो फिर हमें जितना अनाज़ फितरे के तौर पे निकालने हैं हम उनके हिसाब से रकम किसी ग़रीब के पास भेज सकते हैं या अपने रिश्तेदारों को भेज कर उतनी रकम का अनाज़ खरीद कर वहां मिस्कीनों में तक्सीम करा सकते हैं.


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किन चीज़ों से रोज़ा टूट जाता है?


1. जान-बुझ कर कुछ भी खाने पीने से रोज़ा टूट जाता है अलबत्ता भूल कर कुछ खा ले तो इस से रोज़ा नहीं टूटता है.

नोट: अगर कोई शख्स अनजाने में भूल से कुछ खा ले तो उसे चाहिए के रोज़ा पूरा कर ले क्यूंकि उसे अल्लाह ने खिलाया पिलाया है.

2. जान बुझ कर कै करने से टूट जाता है अलबत्ता तबियत की खराबी की वजह से अगर कै हो जाये तो उस से रोज़ा नहीं टूटता है
रसूलल्लाह (स० अलैह०) ने फ़रमाया "जिसको खुद कै आ गयी (उसका रोज़ा बरक़रार है) उस पर क़ज़ा नहीं, और अगर उसने जान बुझ कै की तो उसे चाहिए के वह क़ज़ा दे".

3. रोज़े की हालत में बीवी से हमबिस्तरी करने से भी रोज़ा टूट जायेगा. इस हालत में रोज़े की क़ज़ा के साथ उसका कफ़्फ़ारा भी अदा करना होगा.

4. बदन के अंदर इंजेक्शन या किसी भी ज़रिये से कोई ऐसी चीज़ पहुंचना जिस से के बदन को ताकत या ग़िज़ा  मिले, उस से भी रोज़ा टूट जायेगा.

नोट: अगर इंजेक्शन का मक़सद सिर्फ इलाज़ है और दवा किसी तरह की कोई ताक़त या ग़िज़ा मुराद न हो तो फिर रोज़ा नहीं टूटता.

5. हैज़ और नफास से रोज़ा टूट जायेगा चाहे किसी भी वक्त इसका आगाज़ हो.

6. कोई ज़ख्म लगने से या नकसीर फूट जाने से खून निकलने लगे तो भी रोज़ा नहीं टूटता है.

7. इसके अलावा रोज़े की हालत में सुरमा लगाना, तेल लगाना, नाख़ून काटना, खुशबु लगाना, खुशबु सूंघना, कान के बाहर के हिस्से में काडी तिनका डाल कर कान से मैल निकालना या कान को खुजलाना,  बाम वगैरा लगाना इन सब बातों से रोज़ा नही टूटता।

8.एहतलाम  हो जाने से रोज़ा नहीं टूटता हाँ अगर जान बुझ कर मनी खारिज की जाये तो रोज़ा टूट जायेगा.

रोज़े का कफ़्फ़ारा

रोज़े का कफ़्फ़ारा ये है के एक ग़ुलाम आज़ाद किया जाये, या फिर ६० दिन का रोज़ा रख जाये या फिर   ६० मिस्कीनों को खाना खिलाया जाये या फिर जो कुछ अल्लाह ने आता किया हो अपनी इस्तेता'अत के मुताबिक हो वो खाने की शक्ल में सदक़ा करे. ये हदीस से साबित रोज़े का कफ़्फ़ारा है.


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रमज़ान की फ़ज़ीलत का बयांन शायद लफ़्ज़ों में कर पाना मुश्किल हो क्यूंकि ये वो अजमतों बरकतों और बेशुमार रहमतों वाला महीना है जिसमे क़ुरआन नाज़िल हुआ और जिस महीने में शैतान को क़ैद कर दिया जाता है और अल्लाह तआला अपने बन्दों के लिए अपने रहमतों के दरवाज़े खोल देता है.
रमज़ान की फ़ज़ीलत में बहुत सी क़ुरआनी आयतें और हदीसें हैं. तो आइए उनमे से कुछ एक पे नज़र डालते हैं: 



(सुरह बकरा आयत:183)




तर्जुमा:मोमिनो, तुम पे रोज़े फ़र्ज़ किये गए जिस तरह तुमसे पहले लोगों पे फ़र्ज़ किये गए थे ताकि तुम परहेज़गार बनो.  (सुरह बकरा आयत:183)




(सुरह बकरा आयत:184)


(रोज़ों के दिन) गिनती के चन्द रोज़ हैं, तो जो शख्स तुम में से बीमार हो या सफर में हो तो दुसरे दिनों में रोज़ों का शुमार पूरा कर ले और जो लोग रोज़ा रखने की ताक़त रखें (लेकिन रखें नहीं) वो रोज़े के बदले मोहताज़ को कहना खिल दें और जो कोई शौक से नेकी करे तो उसके हक़ में ज़्यादा अच्छा है और अगर समझो में तो रोज़ा रखना ही तुम्हारे हक़ में बेहतर है. (सुरह बकरा आयत:184)





(सुरह बकरा आयत:185)


तर्जुमा:
रमजान का महीना जिसमे क़ुरआन नाज़िल हुआ,लोगों के लिए रहनुमा है और जिसमें हिदायत की खुली निशानियां हैं और जो (हक़-ओ-बातिल) को अलग करने वाला है तो जो कोई तुम में से इस महीने में मौजूद हो उसे चाहिए के पुरे महीने के रोज़े रखे और जो बीमार या सफर में हो वो दुसरे दिनों में रख कर उनका शुमार पूरा कर ले.अल्लाह तुम्हारे हक़ में आसानी चाहता है और सख्ती नहीं चाहता. और ये (आसानी का हुक्म) इसलिए (दिया गया) है के तुम रोज़ों का शुमार पूरा कर लो और इस एहसान के बदले के अल्लाह ने तुमको हिदायत बख्शी है, तुम उनको बुज़ुर्गी से याद करो और उनका शुक्र करो. (सुरह बकरा आयत:185)



(सुरह बकरा आयत:187)



तर्जुमा: रोज़े की रातों में तुम्हारे लिए अपनी औरतों के पास जाना कर दिया गया है वह तुम्हारी पोशाक हैं और तुम उनकी पोशाक हो. अल्लाह को मालूम है के तुम (उनके पास जाने से) अपने हक़ में खयानत करते थे सो उसने तुम पर मेहरबानी की और तुम्हारी हरकत से दरगुज़र फ़रमाई. अब (तुमको इख़्तियार है के उनसे) मुबाशरत करो.और अल्लाह ने तुम्हारे लिए जो चीज़ लिख रखी है (यानी औलाद) उसको (अल्लाह से) तलब करो और खाओ पियो यहां तक के सुबह की सफ़ेद धारी (रात की) स्याह धारी से अलग नज़र आने लगे फिर रोज़ा (रख के) रात तक पूरा करो और जब तुम मस्जिदों में ऐतकाफ बैठो हो तो उनसे मुबाशरत न करो.ये अल्लाह की हदें हैं उनके पास न जाना. इस तरह अपनी आयतें लोगों के (समझाने के लिए) खोल खोल कर बयां फरमाता है ताकि वह परहेज़गार बनें. (सुरह बकरा आयत:187)





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"हमने इंसानो और जिन्न को सिर्फ इसलिए पैदा किया की वो हमारी ईबादत कर सके"  (सूरह अल-जरियह: आयत 56)


अल्लाह क़ुरआन में फरमाता है के हमने जिन्न और इंसानो को सिर्फ इसलिए पैदा किया के वो हमारी ईबादत कर सकें, मगर लोगों ने अपने अलग-अलग कुनबे बना लिए और अपने माबूद को भूल कर खुद के बनाए हुए खुदाओं और बुतों की ईबादत करने लगे. हमे हिदायत देने के लिए समय समय पे रसूलों को हमारे दरमियान अपनी पैगाम के साथ उन्हें भेजा.
हज़रत आदम (अलै०) से ले कर हज़रत मुहम्मद (स० अलैह० व०) तक जितने भी नबी हमारे दरमियान आये, सब ने हमे यही पैगाम सुनाया के अल्लाह हमसे बेहद मुहबबत करता है और बदले में सिर्फ और सिर्फ अपनी ईबादत चाहता है.
अल्लाह तबरक-व-तआला ने अपनी वही (सन्देश) को किताबों की शक्ल में भी नाज़िल फ़रमाया ताकि इंसान उसके कलाम को पढ़ें और हिदायत हासिल कर सकें.
दर्ज़ा-ज़ील किताबें अल्लाह ने हिदायत के तौर पे इस दुनियां में नाज़िल फर्मायीं:
1 तौरात (हज़रत मूसा अलै० )
2 ज़बूर (हज़रत दाऊद अलै० )
3 इंजील (हज़रत ईसा अलै०)
4  क़ुरआन (हज़रत मुहम्मद स० अलैह० व०)


 

ह० मुहम्मद (स० अलैह० व०) - मुख़्तसर तारीफ़

ह० मुहम्मद (स० अलैह० व०)




हज़रत मुहम्मद (स० अलैह० व०) अल्लाह के सबसे महबूब रसूल हैं. ये सबसे आखरी रसूल भी हैं जिनकी विलादत सऊदी अरब मुल्क के शहर मक्का में हुई थी. इनकी वालिदा का नाम हज़रते आमिना और वालिद का नाम हज़रत अब्दुल्लाह था. आपकी विलादत के पहले ही आपके वालिद का इंतेक़ाल हो चूका  था और फिर जब आपकी उम्र 6 साल की थी तो आपकी वालिदा का भी इंतेक़ाल हो गया.
आपकी परवरिश आपके दादा अब्दुल मुत्तल्लिब ने कि और फिर उनके बाद चाचा अबु तालिब ने आपकी देखभाल की. आप "अमीन" के नाम से भी जाने जाते थे. 25 साल की उम्र में आपकी शादी हज़रते ख़दीजा (रज़ि०) से हुई. आपकी कुल 11 बीवियां थीं.
जब आपको उम्र 40 साल की थी जब आपको नुबूवत मिली. अल्लाह तआला  जिब्रईल (अलैह०) के ज़रिये वही नाज़िल फरमाते और जो सबसे पहली वही नाज़िल हुई वह थी "इक़रा". ग़ारे हिरा में उनपे वही नाज़िल होती थी.

रमजान-रहमतों वाला बा-बरकत महीना



जब रमजान का महीना आता है तो जन्नत के, रहमत के और आसमान के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं. दोज़ख के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और शैतान को बेड़ियों में जकड दिया जाता है.
रमजान का महीना बा-बरकत महीना है, यही वो अफ़ज़ल महीना है जिसमे क़ुरआन नाज़िल हुआ. इस महीने में एक रात ऐसी भी है जो बड़ी क़द्र, अमन-ओ-सलामती और बरकत वाली रात है, ये रात हज़ार महीने से अफ़ज़ल है जिसे लयतुल-क़द्र कहते हैं और जिसे रमजान के आखरी अशरे की ताक रातों में तलाश करनी चाहिए.
इस महीने में हर रात को एक मुनादी निदा करता है के ऐ खैर की तलाश करने वाले आगे बढ़ो, और ऐ बुराई की तलाश में निकलने वाले बाज़ आ जाओ. इस महीने में हर रात को अल्लाह तआला बहुत से लोगों को दोज़ख से आज़ाद कर देता है.

जन्नती कौन हैं?

अल्लाह तबारक-व-तआला ने क़ुरआन में जगह जगह जन्नत का और उसकी खूबियों का ज़िकर किया है, उसमे रहने वाले हूरों का ज़िक्र किया और भी कहा के ये सिर्फ उनके लिए है जो ईमान लए और जिन्होंने वहदानियत का इक़रार किया और अपनी को हर बुराई से महफूज़ रखा. मगर आज का मुस्लमान टुकड़ों में तक्सीम हो गया और हर फ़िरक़ा अपनी को जन्नती बताता है...तो फिर कौन है जन्नती.
आइये मुहम्मदुर-रसूलल्लाह (स० अलैह०) की उस हदीस पे गौर करें जो उन्होंने जन्नती शख्स और फ़िरक़ों के मुतल्लिक़ कही थी
हज़रात अब्दुल्लाह बिन उमर रजि० से रिवायत है के मुहम्मद स० अलैह० ने फ़रमाया बानी इस्राइल 72 फ़िरक़ों में बंट गए और मेरी उम्मत 73 फ़िरक़ों में बंट जाएगी. इनमे से एक जन्नती होगा बाकी सब जहन्नमी होंगे"
सहबा-ए-कराम रजि० ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह स० अलैह० वो फ़िरक़ा कौन सा है जो जन्नत में जायेगा?
तो आपने फ़रमाया जिसपे मैं और मेरे सहाबी हैं."
(तिर्मिज़ी किताब 38 हदीस 2641)
इस हदीस से हमे ये जानकारी हुआ के जिस रास्ते पे अल्लाह के रसूल थे और जिस रास्ते पे उनके सहाबा थे बस वही एक रास्ता जन्नत की तरफ हमे ले जायेगा, बाकी सारे रास्ते जहन्नम की तरफ,जहन्नम की आग में ले जाने वाले हैं. अब गौर करनी है के वो जन्नती रास्ता कैसे हासिल होगा और उसकी पहचान क्या है?
उसकी सही पहचान यही है के वो रास्ते सिर्फ और सिर्फ क़ुरआन और हदीस का रास्ता है जिसपे अमल करके हम जन्नती हो सकते हैं न के अपने खुदशाखता इस्लाम पे अमल करके और झूट मुल्लाओं की पैरवी कर के.
इसलिए हुए चाहिए के अगर हमे जन्नती होना है , हमे सही रास्ते पे चलना है तो सिर्फ क़ुरआन और हदीस को को देखें किसी और की मनघड़त और झूटी बात न सुने.